Friday 12 April, 2013

इश्क़ मुझको नहीं


इश्क़ मुझको नहीं, वहशत1 ही सही 
मेरी वहशत तेरी शोहरत ही सही 

क़त्अ2 कीजे, न तअल्लुक़3 हम से
कुछ नहीं है, तो अदावत4 ही सही

मेरे होने में है क्या रुसवाई5 
ऐ वो मजलिस नहीं, ख़ल्वत6 ही सही 

हम भी दुश्मन तो नहीं हैं अपने
ग़ैर को तुझसे मुहब्बत ही सही 

हम कोई तर्के-वफ़ा करते हैं 
ना सही इश्क़, मुसीबत ही सही 

हम भी तस्लीम की ख़ू7 डालेंगे 
बेनियाज़ी8 तेरी आदत ही सही 

यार से छेड़ चली जाए 'असद'
गर नहीं वस्ल तो हसरत ही सही !

मिर्ज़ा ग़ालिब

कुछ पता तो चले


खारो-ख़स1 तो उठें, रास्ता तो चले
मैं अगर थक गया, क़ा‍फ़िला तो चले

चाँद-सूरज बुजुर्गों के नक़्शे-क़दम2
ख़ैर बुझने दो इनको, हवा तो चले

हाकिमे-शहर, ये भी कोई शहर है
मस्जिदें बंद हैं, मयकदा3 तो चले

इसको मज़हब कहो या सियासत4 तो चले
खुदकुशी का हुनर तुम सिखा तो चले

इतनी लाशें मैं कैसे उठा पाऊँगा
आज ईंटों की हुरमत5 बचा तो चले

बेलचे लाओ, खोलो ज़मीं की तहें 
मैं कहाँ दफ़्न हूँ, कुछ पता तो चले।

क़ैफ़ी आज़मी

मेरा सलाम कहियो, अगर नामाबर मिले


तस्कीं को हम न रोयें, जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले
हूरान-ए-खुल्द में तिरी सूरत मगर मिले 

अपनी गली में, मुझको न कर दफ़्न, बाद-ए-कत्ल
मेरे पते से ख़ल्क़ को क्यों तेरा घर मिले

साक़ीगरी की शर्म करो आज, वरना हम 
हर शब पिया ही करते हैं मै, जिस क़दर मिले

तुझसे तो कुछ कलाम नहीं, लेकिन ए नदीम 
मेरा सलाम कहियो, अगर नामाबर मिले

तुमको भी हम दिखाएँ, कि मजनूँ ने क्या किया
फुर्सत कशाकश-ए-ग़म-ए-पिन्हाँ से गर मिले

लाज़िम नहीं, कि खिज्र की हम पैरवी करें 
माना कि इक बुजुर्ग हमें हमसफर मिले 

ऐ साकिनाना-ए-कूच : -ए-दिलदार देखना
तुमको कहीं जो 'ग़ालिब' -ए-आशुफ्‍ता सर मिले

ग़ालिब

सौजन्य से - समकालीन साहित्य समाचार

इश़्क पे ज़ोर नहीं


नुक्ताचीं हैं ग़मे-दिल उसको सुनाये न बने
क्या बने बात, जहाँ बात बनाये न बने

मैं बुलाता तो हूँ उसको, मगर ऐ जज़्बा-ए-दिल
उस पे बन जाये कुछ ऐसी कि बिन आये न बने 

खेल समझा है, कहीं छोड़ न दे, भूल न जाये
काश यूँ भी हो कि बिन मेरे सताये न बने

ग़ैर फिरता है लिये यूँ तेरे ख़थ को कि अगर
कोई पूछे कि ये क्या है, तो छिपाये न बने

इस नज़ाकत का बुरा हो, वो भले हैं, तो क्या 
हाथ आयें, तो उन्हें हाथ लगाये न बने

कह सके ‍कौन कि ये जलवागरी किसकी है 
परदा छोड़ा है वो उसने कि उठाये न बने

मौत की राह न देखूँ कि बिन आये न रहे
तुम को चाहूँ कि न आओ, तो बुलाये न बने

इश़्क पे ज़ोर नहीं, है ये वो आतिश 'ग़ालिब'
कि लगाये न लगे और बुझाये न बने

ग़ालिब

बस तेरी याद ही काफी है मुझे


हिज्र की सब का सहारा भी नहीं 
अब फलक पर कोई तारा भी नहीं 

बस तेरी याद ही काफी है मुझे 
और कुछ दिल को गवारा भी नहीं 

जिसको देखूँ तो मैं देखा ही करूँ 
ऐसा अब कोई नजारा भी नहीं 

डूबने वाला अजब था कि मुझे 
डूबते वक्त पुकारा भी नहीं 

कश्ती ए इश्क वहाँ है मेरी 
दूर तक कोई किनारा भी नहीं 

दो घड़ी उसने मेरे पास आकर 
बारे गम सर से उतारा भी नहीं

कुछ तो है बात कि उसने साबिर 
आज जुल्फों को सँवारा भी नहीं।

साबिर इंदौरी

मुझसे ये सौदा हो नहीं सकता


इलाजे दर्दे-दिल तुमसे मसीहा हो नहीं सकता
तुम अच्छा कर नहीं सकते, मैं अच्छा हो नहीं सकता
तुम्हें चाहूं तुम्हारे चाहने वालों को भी चाहूं?
मेरा दिल फेर दो मुझसे ये सौदा हो नहीं सकता

मुज्तर खैराबादी 

इलाजे दर्दे दिल- दिल के दर्द का इलाज। मसीहा- यहां अभिप्राय किसी भी तरह के वैद्य या इलाज करने वाले से है। ईसा मसीह भी लोगों को ठीक किया करते थे। इसी से दर्द का इलाज करने के लिए मसीहा शब्द का प्रयोग उर्दू शायरी में किया जाता है। फेरना- वापस करना। सौदा- यहां मतलब खरीदी-बिक्री वाले सौदे से है। वैसे सौदा का एक अर्थ जुनून भी होता है, मगर उर्दू में उसे अलग ढंग से लिखते हैं। अपने जमाने के विख्यात शायर मुज्तर खैराबादी जावेद अख्तर के दादा थे। 

दिल से पहुँची तो हैं


सब ग़लत कहते थे लुत्फ़-ए-यार को वजहे-सुकूँ
दर्द-ए-दिल उसने तो हसरत और दूना कर दिया-------हसरत मोहानी 

हक़ीक़त खुल गई हसरत तेरे तर्क-ए-मोहब्बत की 
तुझेतो अबवो पहले से भी बढ़ कर याद आते हैं ---हसरत मोहानी 

दिल से पहुँची तो हैं आँखों में लहू की बूँदें 
सिलसिला शीशे से मिलता तो है पैमाने का-------हसरत मोहानी 

दिल गया रोनक़-ए-हयात गई
ग़म गया सारी कायनात गई---------जिगर मुरादाबादी

दुनिया के सितम याद न अपनी ही वफ़ा याद
अब मुझको नहीं कुछ भी मोहब्बत के सिवा याद -----जिगर मुरादाबादी 

शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो 
बेख़ुदी बढ़ती चली है राज़ की बातें करो------------------फ़िराक़ 

एक मुद्दत से तेरी याद भी आई न हमें 
और हम भूल गए हों तुझे ऎसा भी नहीं -------------फ़िराक़ 

कभी हममें तुममें भी चाह थी, कभी हमसे तुमसे भी राह थी
कभी हमभी तुमभी थे आश्ना, तुम्हें याद हो के न याद हो ------मोमिन 

कहा उस बुत से मरता हूँ तो मोमिन
कहा मैं क्या करूँ मरज़ी ख़ुदा की------------मोमिन 

मैंने मजनूँ पे लड़कपन मे असद 
संग उठाया था के सर याद आया---------(असद और ग़ालिब एक ही हैं) 

जी ढूंडता है फिर वही फ़ुरसत के रात-दिन
बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानाँ किए हुए ----------ग़ालिब 

है कुछ ऎसी ही बात जो चुप हूँ 
वरना क्या बात कर नहीं आती---------ग़ालिब 

जुनूँ में ख़ाक उड़ाता है साथ साथ अपने 
शरीक-ए-हाल हमाराग़ुबार राह में है ---------आतिश 

ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते
हम और बुल्बुल-ए-बेताब गुफ़्तगू करते-------आतिश 

सब केजोहर नज़र में आए दर्द 
बेहुनर तूने कुछ हुनर न किया-----------दर्द 

चमन में सुबहा ये कहती थी होकर चश्म-ए-तर शबनम
बहार-ए-एबाग़ तो यूँ ही रहे, लेकिन किधर शबनम ---------दर्द 

मैं जो बोला कहा के ये आवाज़ 
उसी ख़ाना ख़राब की सी है ------------ मीर

तेरी मुहब्बत में हार के


द‍ुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुझसे भी दिलफ़रेब हैं, ग़म रोज़गार के 

दोनों जहान तेरी मुहब्बत में हार के
वो जा रहा है कौन शबे-ग़म गुज़ार के

बहुत अजीब है ये क़ुर्बतों की दूरी भी
वो मेरे साथ रहा और मुझे कभी न मिला


 - बशीर बद्र

जब सूरज भी खो जाएगा, और चाँद कहीं सो जाएगा
तुम भी घर देर से आओगे, जब इश्क़ तुम्हें हो जाएगा


 - सईद राही

न समझने की ये बातें हैं न समझाने की
ज़िंदगी उचटी हुई नींद है दीवाने की


 - फिराक़

ढूँढ़ने निकला था तुझको और ख़ुद को खो दिया
तू ही अब मेरा पता दे, ज़िंदगी ए ज़िंदगी


 - ज़क़ा सिद्दीक़ी

जो पराई पीर में नीरज बहा
अश्क का कतरा वही गंगा हुआ


 - नीरज गोस्वामी

फूल की ख़ुशबू वफ़ा की बात से मतलब नहीं 
वो तो पत्थर है, उसे जज़्बात से मतलब नहीं 

- इब्राहीम अश्क


मिलना था इत्तफ़ाक, बिछड़ना नसीब था
वो इतनी दूर हो गया, जितना करीब था

तुमसे मिले ज़माना हुआ फिर भी लगे
जैसे तुम मिलके गए अभी-अभी

दिल को सुकून रूह को आराम आ गया 
मौत आ गई कि यार का पैग़ाम आ गया।

फिर मेरी आँख हो गई नमनाक 
फिर किसी ने मिज़ाज पूछा है

ऐ काश वो भी ऐसे में आ जाए अचानक
मौसम बहुत दिनों में सुहाना हुआ तो है - अज़ीज़ अंसारी 

आग़ाजे़-आशिक़ी का मज़ा आप जानिये
अंजामे-आशिक़ी का मज़ा हमसे पूछिये

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का 
उसी को देख के जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का 
उसी को देख के जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले

उसके तसव्वुरात में खोया हुआ हूँ मैं 
वो भी मेरे ख्याल में डूबा हुआ तो है

सारी बस्ती सुला के आई है
ऐसा लगता है जैसे याद उसकी
सारी दुनिया भुला के आई है 

- अज़ीज़ अंसारी

तुम याद बेहिसाब आए


तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं 
किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं 


-फ़ैज़ 

कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब
आज तुम याद बेहिसाब आए


-फ़ैज़ 

यूँ तो हिलता ही नहीं घर से किसी वक़्त 'अदम' 
शाम के वक़्त न मालूम किधर जाता है 


-'अदम'

आइये कोई नेक काम करें 
आज मौसम बड़ा गुलाबी है 


-'अदम'

रात बाक़ी थी जब वो बिछड़े थे 
कट गई उम्र रात बाक़ी है 


ख़ुमार 

मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
दिल भी यारब कई दिए होते 


-ग़ालिब 

ठानी थी दिल में अब न मिलेंगे किसी से हम 
पर क्या करें के हो गए नाचार जी से हम 


मोमिन 

तुम मेरे पास होते हो गोया


                               जब कोई दूसरा नहीं होता


-मोमिन 

तेरे कूंचे इस बहाने मुझे दिन से रात करना 
कभी इससे बात करना, कभी उससे बात करना


-मसहफ़ी 

मसहफ़ी हम तो ये समझे थे के होगा कोई ज़ख़्म 
तेरे दिल में तो बहुत काम रफ़ू का निकला -


मसहफ़ी 

हम हुए तुम हुए के मीर हुए 
उसकी ज़ुल्फ़ों के सब असीर हुए-

-मीर तक़ी मीर

दीदा-ए-तर याद आया


फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
दिल जिगर तिश्ना-ए-फ़रयाद आय

जिगर तिशना--मतलब बहुत बेचैन। आज मुझे अपने आँसू बहाने के दिन याद आ गए। और हमारा दिल बेचैन हो उठा और अश्क बहाने की फ़रयाद करने लगा क्योंके उसे आँसू बहाने में कुछ ज़्यादा ही लुत्फ़ आता है। 

दम लिया था न क़यामत ने हनोज़ 
फिर तेरा वक़्त-ए-सफ़र याद आया
तेरे जाने के बाद जो क़यामत टूटी थी, अभी उससे राहत भी नहीं मिली थी के फिर वो वक़्त याद आ गया जब तू रुख़्सत हुआ था। इस तरह हमारी बेचैनी और बढ़ गई।

ज़िन्दगी यूँ भी गुज़र ही जाती 
क्यों तेरा राहगुज़र याद आया 

हमारी ज़िन्दगी जैसी भी गुज़र रही थी गुज़र जाती। हमें तेरा रास्ता याद आया हमने सोचा इस पर चलकर शायद कुछ राहत मिले। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। इसलिए तेरा राहगुज़र हमें याद ही न आता तो अच्छा था।

क्या ही रिज़वाँ से लड़ाई होगी
घर तेरा ख़ुल्द में गर याद आया

अगर हम जन्नत में आ गए और वहाँ रहते हुए अगर हमें तेरे घर की याद आई, तो हम वहाँ से निकलना चाहेंगे और वहाँ का दारोग़ा हमें निकलने नहीं देगा, तो ज़ाहिर है हमारी उस दारोग़ा से लड़ाई होगी। 

फिर तेरे कूंचे को जाता है ख़्याल 
दिल-ए-गुमगश्ता मगर याद आया 

हमारा ख़्याल बार-बार तेरी गली की तरफ़ जा रहा है। अगर हमारा खोया हुआ दिल कहीं मिलेगा तो बस इसी गली में मिलेगा। तेर कूँचे की तरफ़ हमारे ख़्याल के जाने का मतलब है अपने खोए हुए दिल को वहाँ ढूँडना।

कोई वीरानी सी वीरानी है 
दश्त को देख के घर याद आया

मैं घर की वीरानी से घबरा कर रेगिस्तान में रहने चला गया। लेकिन यहाँ की वीरानी तो बिल्कुल घर की वीरानी जैसी है। यहाँ की वीरानी देखकर मुझे अपने घर की याद आ रही है और ये भी एहसास हो रहा है के मेरा घर इतना वीरान है। 

मैंने मजनूँ पे लड़कपन में असद 
संग उठाया था के सर याद आया

लड़कपन के ज़माने में जब मजनूँ को पत्थर मारने का ख़्याल मेरे दिल आया तो मैं रुक गया। मुझे एहसास हुआ के मैं भी तो एक आशिक़ हूँ। अगर कहीं मेरी भी ऐसी हालत हो गई तो मुझ पर भी पत्थर बरसाए जाएँगे। संग तो मैंने मजनूँ के सर के लिए उठाया था लेकिन सर मुझे अपना याद आ गया।